हिंदुस्तान अब आजाद है लेकिन में मानसिक रूप खुद को आज भी गुलाम समझता हूँ ? हमारी सभ्यता और संस्कृति अतुलनीय है और रहेगी इसमें कोई सक नहीं है लेकिन हमारी इसी सभ्यता और संस्कृति पर जिसने आघात किया उसका महिमामंडन यदि स्वतंत्र भारत में भी किया जाता रहे तो कही ना कही मन में यह ठेश पहुचती है की जिसने हमारे पूर्वजो पर अत्याचार किये उसी का महिमामंडन कर के हम क्या साबित करना चाहते है ? जिसने जबरन हमारे बहु बेटियो पर अत्याचार किये जिसने दूध मुहे बच्चो को भी नहीं बक्सा और जलती हुई आग में फेक दिया जिन्होंने हजारो लोगो पर गोलिया चलवाई ? तोप में बांध कर जिन्दा मरवा दिया जिन्होंने हमारे पूर्वजो को दीवारों में चुनवा दिया हो लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी आज जब सड़को से गुजरते हुए उन नामो का बोर्ड नजर आता है तो मन में एक कसक सी उठती है गौरतलब हो की इतिहास कारो के अनुसार 715 A.डी में मोहमद बिन कासिम ने सर्वप्रथम काबुल पर हमला किया था और उसके बाद से ही यह सिलसिला आरंभ हुआ और ना जाने कितने आक्रंताओ ने हमारे ऊपर हमला किया जिनमे मोहम्मद गौरी , गजनी , क़ुतुब उद्दीन ऐबक ,जलालुद्दीन खिलजी , औरंगजेब ,अकबर आदि प्रमुख है जिन्होंने ना सिर्फ हमारी जमीन पर कब्ज़ा किया वरन संस्कृति पर भी गंभीर चोट पहुचाई चाहे वो धर्मांतरण के जरिये हो या फिर मंदिर को तोड़ कर लेकिन हममे से कुछ लोग आज उनकी महिमामंडन करते नहीं थकते आखिर क्या कारन है . आज भी हिंदुस्तान के लगभग सहरो में विदेसी आक्रंताओ चाहे वो औरंगजेब हो , तुगलब हो ,अकबर हो के नाम की बोर्ड सड़क पर नजर आती है , यही नहीं अंग्रेजो ने जिन्होंने हमारे ऊपर असंख्य अत्यचार किये उनके नाम की मुर्तियो पर कुछ लोग माल्यार्पण करते है .और उनके नाम की भी सड़क आज मौजूद है ? क्या ये नाम अभी भी रहना चाहिए मुग़ल सराए जैसे स्टेशन का नाम बदल कर हमारे स्वतंत्रता सेनानियो के नाम पर नहीं किया जाना चाहिए ताकि हमारे पूर्वजो को सम्मान मिले लेकिन दुर्भाग्य है इस देश का की आजादी के बाद भी हम मानसिक तौर पर गुलाम है और आक्रंताओ के नाम का माला जपने में स्वयं को धन्य समझते है ?
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